शीतला माता की कथा/कहानी (Shitala Mata Ki Kahani)

हिन्दू धर्म में चैत्र, वैशाख, जेष्ठ और आषाढ़ माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को शीतला अष्टमी के रूप में पूजा जाता है।  इन चारों महीने के इन चार दिन का व्रत करने से शीतला जनित बीमारियों से मुक्ति मिलती है। भक्तजन इस दिन माता शीतला का व्रत रखते हैं और माता से अपने परिवार की रक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं। माता शीतला की पूजा में शीतल जल और बासी भोजन का भोग लगाया जाता है।

माता शीतला को माँ भगवती दुर्गा का ही रूप माना जाता है। इनकी व्रत व पूजा से व्यक्ति को गर्मी के दिनों में होने वाले पित्त विकार व चेचक के प्रकोप से मुक्ति मिलती है। शीतला सप्तमी और शीतलाष्टमी व्रत मनुष्य को चेचक के रोगों से बचाने का प्राचीन काल से चला आ रहा व्रत है। आयुर्वेद की भाषा में चेचक को ही शीतला कहा गया है।

शीतला अष्टमी के दिन माता की यह कथा अवश्य ही पढ़ी जाती है। इसके साथ ही शीतला स्त्रोत का पाठ भी किया जाता है।

शीतला माता की कहानी

एक समय की बात है, एक राज्य में एक राजा का इकलौता पुत्र चेचक (शीतला) रोग से ग्रस्त हो गया। उसी राज्य में एक काछी (कुर्मी) परिवार का पुत्र भी इसी रोग से पीड़ित था। काछी परिवार अत्यंत निर्धन था, किंतु भगवती शीतला का परम भक्त था। बीमारी के समय भी उन्होंने श्रद्धा एवं नियमों के साथ देवी की आराधना जारी रखी।

घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता था। देवी की पूजा प्रतिदिन विधि विधान पूर्वक की जाती थी। भोजन में नमक का प्रयोग नहीं किया जाता था। सब्जियों में छौंक नहीं लगाया जाता था, और न ही कोई चीज़ तली-भुनी जाती थी। गरम पदार्थों से तो विशेष परहेज़ रखा जाता था - ऐसी चीज़ें न तो पिता स्वयं खाता और न ही बेटे को देता। इन नियमों का सख़्ती से पालन करने से उसका पुत्र शीघ्र ही स्वस्थ हो गया।

उधर दूसरी ओर, राजमहल में शीतला के प्रकोप के बाद हवन, यज्ञ और शतचंडी पाठ जैसे अनुष्ठान किए जाने लगे।राजपुरोहित भगवती की पूजा में रत रहते। प्रतिदिन विविध प्रकार के पकवान बनते - गरम और मसालेदार भोजन, मांसाहार, और कई प्रकार की मिठाइयाँ भी बनाईं जाती। इन व्यंजनों की सुगंध से राजकुमार का मन ललचाने लगता और वह उन्हें खाने की ज़िद करता। इकलौता पुत्र होने के कारण राजा उसकी हर इच्छा पूरी कर देता।

नियमों के इस उल्लंघन के कारण शीतला का कोप और भी बढ़ता गया। राजकुमार के शरीर पर बड़े-बड़े फोड़े हो गए, जिनमें तेज खुजली और जलन होती थी। जितना राजा उपाय करता, उतना ही रोग बढ़ता जाता, क्योंकि वह अनजाने में देवी शीतला के निर्देशों का उल्लंघन कर रहा था।

राजा चिंतित था कि तमाम पूजा-पाठ और बलिदानों के बावजूद उसका पुत्र ठीक क्यों नहीं हो रहा। तभी एक दिन गुप्तचरों ने राजा को बताया कि काछी का पुत्र भी इसी रोग से पीड़ित था, लेकिन अब पूरी तरह स्वस्थ हो गया है।

यह जानकर राजा आश्चर्यचकित हो गया। वह सोचने लगा- "मैं तो भगवती की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ रहा, फिर भी मेरा पुत्र क्यों नहीं ठीक हो रहा जबकि गरीब काछी का पुत्र बिना विशेष सेवा के अच्छा हो गया।"

इसी उलझन में राजा को नींद आ गई। सपने में श्वेत वस्त्र धारण किए भगवती शीतला ने दर्शन दिए और कहा- "हे राजन्! मैं तुम्हारी श्रद्धा और पूजा से प्रसन्न हूं, तभी अब तक तुम्हारा पुत्र जीवित है। परंतु उसका रोग बढ़ने का कारण यह है कि तुमने शीतला के समय पालन किए जाने वाले नियमों का उल्लंघन किया है। चेचक के समय नमक निषिद्ध है, क्योंकि यह फोड़ों में खुजली उत्पन्न करता है। गरम और तले-भुने भोजन से परहेज़ आवश्यक है। सब्जी में छौंक लगाने से उसकी गंध रोगी को ललचाती है। रोगी को एकांत में रखना चाहिए, जिससे रोग का प्रसार न हो। इन नियमों का पालन करोगे तो तुम्हारा पुत्र शीघ्र स्वस्थ हो जाएगा।" इतना कहकर देवी अंतर्ध्यान हो गईं।

सुबह होते ही राजा ने देवी के सभी निर्देशों का पालन करना प्रारंभ कर दिया। नमक और गरम भोजन बंद करवा दिया। पूरी तरह से सात्त्विक और नियमों के अनुरूप वातावरण बनाया गया। इसके प्रभाव से राजकुमार की स्थिति दिन-ब-दिन बेहतर होती गई, और शीघ्र ही वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया।

इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण और माता देवकी का विधिवत पूजन करके मध्य-काल में सात्विक पदार्थों का भोग लगाना चाहिए। ऐसा करने से पुण्य ही नहीं मिलता बल्कि समस्त दुखों का भी निवारण होता है।

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