रोहिणी शकट भेदन, दशरथ रचित शनि स्तोत्र कथा (Rohini Shakat Bhed, Dasharath Rachit Shani Stotr Katha)

सूर्यपुत्र भगवान शनि देव को हिंदू धर्म में न्याय के देवता और कर्मफल दाता के रूप में पूजा जाता है। वे प्रत्येक जीव के शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार फल देने वाले महाबलशाली ग्रह हैं। आमतौर पर लोग शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या से डरते हैं, लेकिन इन सबसे भी अधिक भयावह और विनाशकारी स्थिति होती है – शनि रोहिणी शकट भेदन

रोहिणी शकट भेदन क्या है?

रोहिणी शकट भेदन एक अत्यंत दुर्लभ और विनाशकारी ज्योतिषीय योग है, जो हजारों वर्षों में एक बार घटित होता है। यह योग मुख्य रूप से शनि, चंद्रमा या मंगल ग्रहों से संबंधित होता है, और इसके घटित होने पर पृथ्वी पर भयानक परिणाम देखने को मिलते हैं।

प्राचीन ग्रंथों में इसका उल्लेख एक श्लोक के माध्यम से किया गया है -

गवि नगकुलवे खगोस्य चेद्यमदिगिषुः खगशरांगुलाधिकः॥
कभशकटमसौ भिनत्यसृक्क्षनिरुडुपो यदि चेज्जनक्षयः॥

इस श्लोक का भावार्थ है कि जब कोई ग्रह वृषभ राशि में 17 अंश पर स्थित हो और वह रोहिणी नक्षत्र के तृतीय चरण में हो, साथ ही उसका शर (तीर) दक्षिण दिशा की ओर हो और उसका माप पाँच अंगुल से अधिक अर्थात लगभग दो अंश हो, तब वह शकट भेदन की स्थिति मानी जाती है। ऐसी स्थिति में यदि शनि, चंद्रमा या मंगल में से कोई एक ग्रह उस स्थान पर हो, तो उसे रोहिणी शकट भेदन कहा जाता है। ज्योतिषीय मान्यताओं के अनुसार अन्य किसी ग्रह से यह योग नहीं बनता।

शनि का रोहिणी शकट भेदन विशेष रूप से अत्यंत भयावह और विनाशकारी माना गया है। इसके प्रभाव से पृथ्वी पर बारह वर्षों तक भीषण अकाल, युद्ध और व्यापक विनाश की संभावनाएँ बन जाती हैं। यह स्थिति न केवल मानव जीवन के लिए, बल्कि देवताओं और असुरों तक के लिए भी संकट उत्पन्न करने वाली मानी जाती है।

शनि रोहिणी शकट भेदन की कथा

प्राचीन काल में दशरथ नामक एक प्रसिद्ध चक्रवर्ती सम्राट हुए। उनके उत्तम शासन से प्रजा सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही थी। पूरे राज्य में सुख और शांति का वातावरण था। एक दिन ज्योतिषियों ने आकाश की गणना करते हुए देखा कि शनि कृत्तिका नक्षत्र के अंतिम चरण में पहुँच गया है और शीघ्र ही वह रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करेगा। इसे रोहिणी-शकट-भेदन कहा जाता है।

शनि का रोहिणी में प्रवेश करना देवताओं और असुरों दोनों के लिए अत्यंत कष्टदायक होता है। इस योग से बारह वर्षों तक भयंकर अकाल पड़ता है और अत्यंत दुःखद स्थिति उत्पन्न होती है।

जब राजा दशरथ ने यह बात सुनी और प्रजा की चिंता व व्याकुलता देखी, तो उन्होंने वशिष्ठ ऋषि तथा प्रमुख ब्राह्मणों से कहा, "हे ब्राह्मणों! कृपया शीघ्र ही मुझे इस संकट का कोई समाधान बताइए।"

इस पर वशिष्ठ जी बोले, "हे राजन! जब शनि रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करता है, तब प्रजाजन सुखी नहीं रह सकते। इस योग का प्रभाव इतना घातक होता है कि ब्रह्मा और इंद्र जैसे देवता भी इससे रक्षा करने में असमर्थ रहते हैं।"

वशिष्ठ जी की बात सुनकर राजा दशरथ गहरे चिंतन में डूब गए। वे सोचने लगे कि यदि इस संकट को नहीं टाल पाए, तो लोग उन्हें कायर कहेंगे। अतः उन्होंने साहस बटोरकर दिव्य धनुष और अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर रथ में सवार हुए और उसे तीव्र गति से चलाकर चंद्रमा से तीन लाख योजन ऊपर नक्षत्र मंडल तक पहुँचे।

रत्नों से जटित, स्वर्ण निर्मित रथ में बैठे हुए, श्वेत अश्वों द्वारा संचालित, ऊँची ध्वजाओं से सुसज्जित और मुकुट में जड़े अमूल्य रत्नों से आलोकित राजा दशरथ उस समय आकाश में दूसरे सूर्य के समान दीप्तिमान प्रतीत हो रहे थे।

रोहिणी नक्षत्र की ओर बढ़ते हुए शनि को देखकर दशरथ ने धनुष पर बाण चढ़ाया और कानों तक खींचते हुए भृकुटियों को तानकर उनके समक्ष दृढ़ता से खड़े हो गए।

राजा दशरथ को इस प्रकार अस्त्रों से सुसज्जित देख शनि थोड़े भयभीत हो गए और हँसते हुए बोले, "हे राजेन्द्र! तुम्हारे जैसा पुरुषार्थी मैंने आज तक नहीं देखा। देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग जातियाँ भी मेरे दर्शन मात्र से भयभीत हो जाते हैं, किन्तु तुम निर्भीक होकर मेरे समक्ष खड़े हो। मैं तुम्हारे तप और पराक्रम से अत्यंत प्रसन्न हूँ। हे रघुनन्दन! जो भी वर चाहो, माँग लो।"

राजा दशरथ ने हाथ जोड़कर कहा, "हे सूर्यपुत्र शनिदेव! यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं, तो मैं एकमात्र यही वर चाहता हूँ कि जब तक नदियाँ, समुद्र, चंद्रमा, सूर्य और पृथ्वी इस संसार में विद्यमान हैं, तब तक आप रोहिणी-शकट-भेदन न करें। यही मेरी एकमात्र इच्छा है।"

शनि देव ने प्रसन्न होकर कहा, "एवमस्तु!" और वह वर प्रदान कर दिया। इस प्रकार वर प्राप्त कर राजा दशरथ अपने आप को धन्य समझने लगे।

शनि देव बोले, "हे दशरथ! मैं तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम और भी कोई वर मांग सकते हो।"

इस पर दशरथ ने प्रसन्न होकर दूसरा वर माँगा।

शनि देव ने कहा, "हे दशरथ! तुम निडर रहो। आने वाले बारह वर्षों तक तुम्हारे राज्य में किसी प्रकार का अकाल नहीं पड़ेगा। तुम्हारी यश-कीर्ति तीनों लोकों में फैलेगी।"

यह वर प्राप्त कर दशरथ ने धनुष-बाण को रथ में रखा, फिर सरस्वती माता और गणपति का ध्यान करते हुए शनिदेव की स्तुति करने लगे।

दशरथ कृत शनि स्तोत्र के माध्यम से प्रार्थना

जिनके शरीर का रंग भगवान् शंकर के समान कृष्ण तथा नीला है उन शनि देव को मेरा नमस्कार है। इस जगत् के लिए कालाग्नि एवं कृतान्त रुप शनैश्चर को पुनः पुनः नमस्कार है॥

जिनका शरीर कंकाल जैसा मांस-हीन तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेव को नमस्कार है। जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पीठ में सटा हुआ पेट तथा भयानक आकार वाले शनि देव को नमस्कार है॥

जिनके शरीर दीर्घ है, जिनके रोएं बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु जर्जर शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरुप हैं, उन शनिदेव को बार-बार नमस्कार है॥

हे शनि देव! आपके नेत्र कोटर के समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप रौद्र, भीषण और विकराल हैं, आपको नमस्कार है॥

सूर्यनन्दन, भास्कर-पुत्र, अभय देने वाले देवता, वलीमूख आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं, ऐसे शनिदेव को प्रणाम है॥

आपकी दृष्टि अधोमुखी है आप संवर्तक, मन्दगति से चलने वाले तथा जिसका प्रतीक तलवार के समान है, ऐसे शनिदेव को पुनः-पुनः नमस्कार है॥

आपने तपस्या से अपनी देह को दग्ध कर लिया है, आप सदा योगाभ्यास में तत्पर, भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं। आपको सर्वदा सर्वदा नमस्कार है॥

जसके नेत्र ही ज्ञान है, काश्यपनन्दन सूर्यपुत्र शनिदेव आपको नमस्कार है। आप सन्तुष्ट होने पर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण क्षीण लेते हैं वैसे शनिदेव को नमस्कार ॥

देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते ऐसे शनिदेव को प्रणाम॥

आप मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ॥ राजा दशरथ के इस प्रकार प्रार्थना करने पर सूर्य-पुत्र शनैश्चर बोले-

उत्तम व्रत के पालक राजा दशरथ! तुम्हारी इस स्तुति से मैं भी अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। रघुनन्दन ! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं अवश्य दूंगा॥

दशरथ उवाच-

प्रसन्नो यदि मे सौरे!
वरं देहि ममेप्सितम्।
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष !
पीडा देया न कस्यचित् ॥

अर्थात- प्रभु! आज से आप देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी प्राणी को पीड़ा न दें। बस यही मेरा प्रिय वर है॥

शनि देव ने कहा: हे राजन्! वैसे इस प्रकार का वरदान मैं किसी को नहीं देता हूँ, परन्तु सन्तुष्ट होने के कारण रघुनन्दन मैं तुम्हे दे रहा हूँ।

हे दशरथ! तुम्हारे द्वारा कहे गये इस स्तोत्र को जो भी मनुष्य, देव अथवा असुर, सिद्ध तथा विद्वान आदि पढ़ेंगे, उन्हें शनि के कारण कोई बाधा नहीं होगी। जिनके महादशा या अन्तर्दशा में, गोचर में अथवा लग्न स्थान, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम या द्वादश स्थान में शनि हो वे व्यक्ति यदि पवित्र होकर प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल के समय इस स्तोत्र को ध्यान देकर पढ़ेंगे, उनको निश्चित रुप से मैं पीड़ित नहीं करुंगा।

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