ज्येष्ठ संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत कथा (Jyeshtha Sankashti Ganesh Chaturthi Vrat Katha)

ज्येष्ठ संकष्टी गणेश चतुर्थी का महात्म्य 🌺
एक दिन माता पार्वती ने अपने पुत्र श्री गणेश से कहा, “पुत्र! मैं ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के विषय में जानने की अत्यंत इच्छुक हूँ। कृपया मुझे बताओ, इस चतुर्थी का क्या नाम है, इसके व्रत का क्या विधान है, और इसके पीछे कौन-सी पवित्र कथा है?”
माता की जिज्ञासा सुनकर भगवान श्री गणेश मुस्कुराए और बोले -
“हे मातः! ज्येष्ठ माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी ‘एकदंत संकष्टी चतुर्थी’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन श्रद्धा-भक्ति से व्रत करने वाला भक्त समस्त संकटों से मुक्ति प्राप्त करता है और उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
इस दिन रात्रि को चंद्रमा के दर्शन कर उसे अर्घ्य अर्पित करना चाहिए। इसके बाद विधिपूर्वक मेरा पूजन करके ही भोजन करना चाहिए। जो भी भक्त इस व्रत का पालन करता है, मैं उसके समस्त कष्ट हर लेता हूँ और जीवन के मार्ग में आने वाले विघ्नों को दूर कर देता हूँ।
अब मैं तुम्हें इस पवित्र व्रत की कथा सुनाने जा रहा हूँ, कृपया ध्यानपूर्वक सुनो।
एकदंत संकष्टी चतुर्थी की कथा (Ekadanta Sankashti Chaturthi Vrat Katha) 🌼
सतयुग में पृथु नामक एक पराक्रमी और धर्मपरायण राजा राज्य करते थे। उन्होंने सौ यज्ञों का आयोजन किया था और समस्त प्रजा सुखी थी। उसी राज्य में दयादेव नामक एक ब्राह्मण भी निवास करते थे, जो वेद-शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनके चार योग्य पुत्र थे, जिनका विवाह वैदिक विधि से उन्होंने सम्पन्न किया।
उनकी सबसे बड़ी पुत्रवधू बचपन से ही गणेशजी की भक्त थी और नियमित रूप से संकष्टी चतुर्थी का व्रत करती थी। विवाह के पश्चात उसने अपनी सास से विनम्र निवेदन किया - “माताजी! मैं बाल्यकाल से संकटनाशक गणेश व्रत करती आई हूँ। कृपया मुझे इस व्रत को करने की अनुमति प्रदान करें।”
परंतु ससुर दयादेव बोले - “हे बहू! तुम हमारे घर में सुखी हो, तुम्हें कोई कष्ट नहीं है। फिर व्रत करने की क्या आवश्यकता है? व्रत तो दुखी और तपस्वियों के लिए होता है। यह व्रत अब तुम्हारे लिए आवश्यक नहीं है।”
ससुर के वचन सुनकर बहू ने व्रत करना छोड़ दिया।
कुछ समय पश्चात वह गर्भवती हुई और दश मास बाद एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। लेकिन उसकी सास और ससुर बारंबार व्रत में विघ्न डालते रहे।
एक दिन उसके पुत्र का विवाह तय हुआ। जैसे ही शुभ घड़ी में विवाह मंडप सजा, अचानक वर गायब हो गया! कोलाहल मच गया - कौन ले गया? कहाँ गया?
वधू की माँ (गणेश भक्त पुत्रवधू) यह देखकर दुखी हो गई और रोते हुए अपने ससुर से बोली - “हे पिताश्री! आपने मुझे संकष्टी व्रत करने से रोका, यह उसी का परिणाम है। गणेशजी कुपित हो गए हैं, तभी मेरे पुत्र का अपहरण हो गया।”
उसकी बात सुनकर दयादेव भी दुःखी हुए। विवाह टल गया। वधू के घर भी शोक व्याप्त हो गया। इसके पश्चात वह गणेशभक्त स्त्री प्रत्येक मास संकष्टी चतुर्थी का विधिपूर्वक व्रत करने लगी।
एक दिन भगवान गणेश ने उसकी परीक्षा लेने हेतु एक व्रद्ध ब्राह्मण का वेश धारण किया और उसके द्वार पर भिक्षा माँगने पहुँचे।
उन्होंने पुकार लगाई - “हे कन्या! मुझे इतनी भिक्षा दो कि मेरी क्षुधा शांत हो जाए।”
वह भक्त कन्या ब्राह्मण वेशधारी गणेशजी को पहचान न सकी, परंतु आदरपूर्वक उनका स्वागत किया, पूजन किया और श्रद्धा से उन्हें भोजन कराया, वस्त्र व आभूषण अर्पण किए।
सेवा से प्रसन्न होकर ब्राह्मण बोले - “हे सुभगे! मैं ब्राह्मण नहीं, स्वयं गणेश हूँ। मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ, वर माँगो।”
कन्या ने तुरंत हाथ जोड़कर प्रार्थना की - “हे विघ्नहर्ता! यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं, तो कृपा कर मुझे मेरे पति से मिलवा दीजिए।”
गणेशजी बोले - “तथास्तु! तुम्हारा पति तुम्हें शीघ्र ही प्राप्त होगा।” कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए। कुछ ही समय बाद उसका पति सकुशल लौट आया। घर में हर्ष की लहर दौड़ गई। पुनः विवाह धूमधाम से सम्पन्न हुआ।