गंगा दशहरा कथा (Ganga Dussehra Katha)

भगवान श्रीराम का जन्म अयोध्या के सूर्यवंश में हुआ था। चक्रवर्ती महाराज सगर उनके पूर्वज थे। उनकी दो रानियाँ थीं- केशिनी और सुमति। केशिनी के पुत्र का नाम असमञ्जस था और सुमति के साठ हजार पुत्र थे। असमञ्जस का पुत्र अंशुमान था। महाराज सगर के सभी पुत्र, असमञ्जस सहित, अत्यंत उद्दंड और दुष्ट स्वभाव के थे, परंतु उनके पौत्र अंशुमान धार्मिक और देव-गुरु पूजक थे। पुत्रों के दुर्व्यवहार से दुखी होकर महाराज सगर ने असमञ्जस को देश से निष्कासित कर दिया था और अंशुमान को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। सगर के अन्य साठ हजार पुत्रों से तो देवता भी दुखी रहते थे।
एक बार महाराज सगर ने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया और उसके लिए घोड़ा छोड़ा। इंद्र ने उस यज्ञ के घोड़े को चुराकर पाताल लोक में कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। ध्यान में लीन कपिल मुनि को इसकी जानकारी नहीं थी। सगर के साठ हजार अहंकारी पुत्रों ने समस्त पृथ्वी छान मारी, परंतु घोड़ा नहीं मिला।
अंत में उन्होंने पृथ्वी से पाताल तक मार्ग खोद डाला और कपिल मुनि के आश्रम में पहुँच गए। वहाँ घोड़ा बंधा देखकर वे क्रोधित हो उठे और शस्त्र उठाकर कपिल मुनि को मारने दौड़े। तपस्या में विघ्न पड़ने पर मुनि ने अपनी आँखें खोलीं और उनके तेज से सगर के सभी पुत्र तत्काल भस्म हो गए।
गरुड़ के द्वारा इस घटना की सूचना मिलने पर अंशुमान कपिल मुनि के आश्रम पहुँचे और उन्होंने मुनि की स्तुति की। अंशुमान की विनम्रता से प्रसन्न होकर कपिल मुनि बोले- "अंशुमान! तुम घोड़ा ले जाकर अपने पितामह का यज्ञ पूर्ण करो। ये सगरपुत्र उद्दंड, अहंकारी और अधार्मिक थे। इनकी मुक्ति तभी संभव है जब गंगा जल से इनकी राख का स्पर्श हो।"
अंशुमान ने घोड़ा ले जाकर यज्ञ पूर्ण कराया। महाराज सगर के बाद अंशुमान राजा बने, परंतु उन्हें अपने चाचाओं की मुक्ति की चिंता बनी रही। कुछ समय बाद उन्होंने राज्यभार अपने पुत्र दिलीप को सौंप दिया और गंगा जी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या करने वन चले गए। अंततः तपस्या में ही उनका शरीरांत हो गया।
महाराज दिलीप ने भी अपने पुत्र भगीरथ को राज्यभार सौंपकर पिता के पथ का अनुसरण किया। उनका भी तपस्या में ही शरीरांत हुआ, किंतु वे भी गंगा जी को पृथ्वी पर न ला सके। दिलीप के पश्चात भगीरथ ने ब्रह्माजी की कठोर तपस्या की। तीन पीढ़ियों की इस तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हुए और वर मांगने को कहा।
भगीरथ ने कहा- "हे पितामह! मेरे साठ हजार पूर्वज कपिल मुनि के शाप से भस्म हो गए हैं। उनकी मुक्ति के लिए कृपा कर गंगा जी को पृथ्वी पर भेजें।"
ब्रह्माजी ने कहा- "मैं गंगा जी को पृथ्वी लोक पर भेज तो सकता हूँ, परंतु उनके वेग को कौन रोकेगा? इसके लिए तुम्हें देवाधिदेव भगवान शंकर की आराधना करनी चाहिए।"
भगीरथ ने एक पैर पर खड़े होकर भगवान शंकर की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने गंगा जी को अपनी जटाओं में समाहित कर लिया और उनमें से एक जटा से उन्हें पृथ्वी की ओर प्रवाहित किया। इस प्रकार गंगा जी पृथ्वी पर अवतरित हुईं। आगे-आगे भगीरथ का रथ चलता और पीछे-पीछे गंगा जी प्रवाहित होतीं।
मार्ग में जह्नु ऋषि का आश्रम पड़ा। गंगा जी उनके कमंडलु, दंड आदि बहा ले जाने लगीं। यह देख ऋषि ने उन्हें पी लिया। कुछ दूर जाने पर भगीरथ ने पीछे मुड़कर देखा तो गंगा जी को न पाकर ऋषि के आश्रम पहुँचकर उनकी वंदना की।
प्रसन्न होकर जह्नु ऋषि ने गंगा जी को अपनी पुत्री बनाकर अपने दाहिने कान से निकाल दिया। इसीलिए देवी गंगा "जाह्नवी" नाम से भी जानी जाती हैं। भगीरथ की तपस्या से अवतरित होने के कारण उन्हें "भागीरथी" भी कहा जाता है।
इसके पश्चात भगवती भागीरथी गंगा जी मार्ग को हरा-भरा और शस्य-श्यामल करती हुई कपिल मुनि के आश्रम पहुँचीं, जहाँ महाराज भगीरथ के साठ हजार पूर्वजों की भस्म पड़ी थी। गंगा जल के स्पर्श मात्र से वे सभी दिव्य स्वरूप धारण कर दिव्य लोकों को प्रस्थान कर गए।