श्री गंगा चालीसा: जय जय जननी हराना अघखानी (Shree Ganga Chalisa)

Shree Ganga Chalisa

श्री गंगा चालीसा

॥ दोहा ॥

जय जय जय जग पावनी, जयति देवसरि गंग।
जय शिव जटा निवासिनी, अनुपम तुंग तरंग॥

॥ चौपाई ॥

जय जय जननी हराना अघखानी।
आनंद करनी गंगा महारानी॥

जय भगीरथी सुरसरि माता।
कलिमल मूल डालिनी विख्याता॥२॥

जय जय जहानु सुता अघ हनानी।
भीष्म की माता जगा जननी॥

धवल कमल दल मम तनु सजे।
लखी शत शरद चंद्र छवि लजाई॥४॥

वहां मकर विमल शुची सोहें।
अमिया कलश कर लखी मन मोहें॥

जदिता रत्ना कंचन आभूषण।
हिय मणि हर, हरानितम दूषण॥६॥

जग पावनी त्रय ताप नासवनी।
तरल तरंग तुंग मन भावनी॥

जो गणपति अति पूज्य प्रधान।
इहूं ते प्रथम गंगा अस्नाना॥८॥

ब्रह्मा कमंडल वासिनी देवी।
श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवि॥

साथी सहस्त्र सागर सुत तरयो।
गंगा सागर तीरथ धरयो॥१०॥

अगम तरंग उठ्यो मन भवन।
लखी तीरथ हरिद्वार सुहावन॥

तीरथ राज प्रयाग अक्षैवेता।
धरयो मातु पुनि काशी करवत॥१२॥

धनी धनी सुरसरि स्वर्ग की सीधी।
तरनी अमिता पितु पड़ पिरही॥

भागीरथी ताप कियो उपारा।
दियो ब्रह्म तव सुरसरि धारा॥१४॥

जब जग जननी चल्यो हहराई।
शम्भु जाता महं रह्यो समाई॥

वर्षा पर्यंत गंगा महारानी।
रहीं शम्भू के जाता भुलानी॥१६॥

पुनि भागीरथी शम्भुहीं ध्यायो।
तब इक बूंद जटा से पायो॥

ताते मातु भें त्रय धारा।
मृत्यु लोक, नाभा, अरु पातारा॥१८॥

गईं पाताल प्रभावती नामा।
मन्दाकिनी गई गगन ललामा॥

मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनी।
कलिमल हरनी अगम जग पावनि॥२०॥

धनि मइया तब महिमा भारी।
धर्मं धुरी कलि कलुष कुठारी॥

मातु प्रभवति धनि मंदाकिनी।
धनि सुर सरित सकल भयनासिनी॥२२॥

पन करत निर्मल गंगा जल।
पावत मन इच्छित अनंत फल॥

पुरव जन्म पुण्य जब जागत।
तबहीं ध्यान गंगा महं लागत॥२४॥

जई पगु सुरसरी हेतु उठावही।
तई जगि अश्वमेघ फल पावहि॥

महा पतित जिन कहू न तारे।
तिन तारे इक नाम तिहारे॥२६॥

शत योजन हूं से जो ध्यावहिं।
निशचाई विष्णु लोक पद पावहीं॥

नाम भजत अगणित अघ नाशै।
विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशे॥२८॥

जिमी धन मूल धर्मं अरु दाना।
धर्मं मूल गंगाजल पाना॥

तब गुन गुणन करत दुख भाजत।
गृह गृह सम्पति सुमति विराजत॥३०॥

गंगहि नेम सहित नित ध्यावत।
दुर्जनहूं सज्जन पद पावत॥

उद्दिहिन विद्या बल पावै।
रोगी रोग मुक्त हवे जावै॥३२॥

गंगा गंगा जो नर कहहीं।
भूखा नंगा कभुहुह न रहहि॥

निकसत ही मुख गंगा माई।
श्रवण दाबी यम चलहिं पराई॥३४॥

महं अघिन अधमन कहं तारे।
भए नरका के बंद किवारें॥

जो नर जपी गंग शत नामा।
सकल सिद्धि पूरण ह्वै कामा॥३६॥

सब सुख भोग परम पद पावहीं।
आवागमन रहित ह्वै जावहीं॥

धनि मइया सुरसरि सुख दैनि।
धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी॥३८॥

ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा।
सुन्दरदास गंगा कर दासा॥

जो यह पढ़े गंगा चालीसा।
मिली भक्ति अविरल वागीसा॥४०॥

॥ दोहा ॥

नित नए सुख सम्पति लहैं, धरें गंगा का ध्यान।
अंत समाई सुर पुर बसल, सदर बैठी विमान॥

संवत भुत नभ्दिशी, राम जन्म दिन चैत्र।
पूरण चालीसा किया, हरी भक्तन हित नेत्र॥

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गंगा चालीसा हिन्दी अर्थ सहित

॥ दोहा ॥

जय जय जय जग पावनी,जयति देवसरि गंग।
जय शिव जटा निवासिनी, अनुपम तुंग तरंग॥

समस्त जगत में पवित्र मानी जाने वाली, देवताओं के लिए भी पूजनीय हे गंगा मैया आपकी जय हो, जय हो। आपकी बहती और उछलती हुई तेज धाराएं अद्वीतीय नजारा बनाती हैं, भगवान शिव की जटाओं में निवास करने वाली हे गंगा मैया आपकी जय हो।

॥ चौपाई ॥

जय जय जननी हरण अघखानी।
आनंद करनी गंगा महारानी॥

जय भगीरथी सुरसरि माता।
कलिमल मूल दलिनी विख्याता॥२॥

जय जय जहानु सुता अघ हननी।
भीष्म की माता जग जननी॥

धवल कमल दल मम तनु साजे।
लखी शत शरद चंद्र छवि लाजै॥४॥

वाहन मकर विमल शुची सोहें।
अमिया कलश कर लखी मन मोहें॥

जडित रत्न कंचन आभूषण।
हिय मणि हार, हरानितम दूषण॥६॥

जग पावनी त्रय ताप नसावनी।
तरल तरंग तुंग मन भावनी ॥

अपने भक्तों को पापों से मुक्ति दिलाकार, सुख प्रदान करने वाली, नदियों में महारानी हे गंगा मैया आपकी जय हो, महारानी माता आपकी जय हो। हे भागीरथी देवलोक में प्रवाहित होने वाली जगत का पालन करने वाली आपकी जय हो, आप ही इस कलयुग में समस्त पापों को धोने के लिए विख्यात हैं प्रसिद्ध हैं। हे जहानु पुत्री पापों का हरण करने वाली, भीष्म पितामह को जन्म देने वाली जग जननी माता आपकी जय हो, जय हो। हे गंगा मैया आप श्वेत कमल की पंखुड़ियों के समान सुंदर हैं, आपकी सुंदरता को देखकर तो शरद ऋतु के सैंकड़ों चंद्रमा भी शरमां जांए। आपका वाहन पवित्र मगरमच्छ भी आपकी शोभा को बढा रहा है, तो वहीं आपके हाथों में अमृत-कलश भी आकर्षित करता है। आपके सोने के आभूषणों में कीमती रत्न जुड़े हुए हैं व आपके वक्षस्थल पर मणियों का हार भी दाग व दोष रहित है। हे समस्त जगत में पवित्र व प्राणि मात्र के तीनों तापों (आधिभौतिक- सांसारिक वस्तुओं/जीवों से प्राप्त कष्ट, आधिदैविक- दैविक शक्तियों द्वारा दिया गया कष्ट या पूर्व जन्म में किए गये कर्मों से प्राप्त कष्ट, एवं आध्यात्मिक- अज्ञानजनित कष्ट) का नास करने वाली। आपकी उछलती हुई तेज प्रवाह से बहती लहरें भी मनभावनी हैं।

जो गणपति अति पूज्य प्रधान।
तिहूँ ते प्रथम गंगा अस्नाना॥८॥

ब्रम्हा कमंडल वासिनी देवी।
श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवि॥

साठी सहस्त्र सागर सुत तारयो।
गंगा सागर तीरथ धारयो॥१०॥

अगम तरंग उठ्यो मन भावन।
लखी तीरथ हरिद्वार सुहावन॥

तीरथ राज प्रयाग अक्षयवट।
धरयो मातु पुनि काशी करवट॥१२॥

धनी धनी सुरसरि स्वर्ग की सीढ़ी।
तारनी अमित पितर पद पीढ़ी॥

जिस प्रकाश देवताओं में सबसे पहले भगवान श्री गणेश की पूजा होती है, उसी प्रकार हे गंगा मैया सारे तीर्थ स्थलों में सबसे पहले आपके स्नान की मान्यता है। हे देवी आप भगवान श्री ब्रह्मा के कमंडल में वास करने वाली हैं। ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु के पैर धोकर जो पानी एकत्र किया आप उसी का रुप हो। आपने ही राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को मोक्ष प्रदान किया और गंगा सागर तीर्थ को अस्तित्व में लायीं आपकी आगे की और उठती हुई तरंगे मन को मोह लेती हैं। आपको देखकर ही हरिद्वार तीर्थ सुहावना लगता है। आपने ही प्रयाग को अक्षयवट (प्रयाग स्थित प्राचीन बरगद का पेड़ जिसके बारे में मान्यता है कि यह कभी नष्ट नहीं होगा) के समान अमर व तीर्थों का राजा होने के गौरव प्रदान किया, फिर आपने काशी की और रुख किया। कहने का अभिप्राय है गंगा जी के किनारे पर अनेक तीर्थ स्थलों का विकास हुआ। देवता भी आपको स्वर्ग की सीढ़ी मानते हैं, हे गंगा मैया आप धन्य हैं। आप पीढ़ियों से असंतुष्ट पितरों की आत्मा को शांत कर उन्हें मुक्ति दिलाती हैं।

भागीरथ तप कियो उपारा।
दियो ब्रह्मा तव सुरसरि धारा॥१४॥

जब जग जननी चल्यो हहराई।
शम्भु जटा महं रह्यो समाई॥

वर्ष पर्यंत गंगा महारानी।
रहीं शम्भू के जटा भुलानी॥१६॥

मुनि भागीरथ शम्भुहीं ध्यायो।
तब इक बूंद जटा से पायो॥

भागीरथ ने ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या की तब जाकर उन्होंनें आपकी धारा को उनके साथ भेजा। हे जग जननी जब आप अपने वेग से चली तो आपके वेग को सहना पृथ्वी के बस का नहीं था, इसलिए भगवान शिव ने अपनी जटाओं में आपको समा लिया। चूंकि आपमें उस समय अहंकार भी आ गया था क्योंकि आप स्वर्ग को छोड़ना नहीं चाहती थी, इसलिए हे नदियों की महारानी गंगा आपको एक साल तक भगवान शिव की जटाओं में उलझे रहना पड़ा। भागीरथी ने फिर से भगवान शिव की स्तुति की जिसके बाद भोलेनाथ ने प्रसन्न होकर आपके वेग को कम करते हुए आपको अपनी जटाओं से मुक्त किया।

ताते मातु भई त्रय धारा।
मृत्यु लोक नभ अरु पातारा॥१८॥

गईं पाताल प्रभावती नामा।
मन्दाकिनी गई गगन ललामा॥

मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनी।
कलिमल हरनी अगम जग पावनि॥२०॥

धनि मइया तब महिमा भारी।
धर्मं धुरी कलि कलुष कुठारी॥

मातु प्रभवति धनि मन्दाकिनी।
धनि सुर सरित सकल भयनासिनी॥२२॥

भगवान शिव की जटाओं से मुक्त होने के बाद गंगा माता वहां से तीन धारा में बह चली जो मृत्यु लोक, आकाश व पाताल लोक की ओर प्रवाहित हुई। पाताल लोक में आपका नाम प्रभावती तो आकाश में मंदाकिनी व मृत्यु लोक यानि पृथ्वी पर जाह्नवी के रुप में जानी गई, यहां आप कलयुग में विश्व को पापों से मुक्त कर पवित्र करती हो। हे मैया आपकी महिमा अपरमपार हैं, आप धन्य हैं जो इस कलियुग में धर्म की धुरी बनकर पापों का विनाश करती हो। हे पाताल में प्रवाहित होने वाली प्रभावती व आकाश में बहने वाली मंदाकिनी माता आप धन्य हैं। सारे डरों को नष्ट करने वाली देव नदी गंगा आप धन्य हैं।

पान करत निर्मल गंगा जल।
पावत मन इच्छित अनंत फल॥

पुरव जन्म पुण्य जब जागत।
तबहीं ध्यान गंगा महँ लागत॥२४॥

जई पगु सुरसरी हेतु उठावही।
तई जगि अश्वमेघ फल पावहि॥

महा पतित जिन कहू न तारे।
तिन तारे इक नाम तिहारे॥२६॥

शत योजन हूँ से जो ध्यावहिं।
निशचाई विष्णु लोक पद पावहीं॥

आपके पवित्र जल का पान करते ही प्राणी मात्र की हर इच्छा पूरी होती है। यदि मनुष्य ने पूर्वजन्म में कोई पुण्य किया हो तो ही उसका ध्यान आपकी भक्ति में लगता है। हे माता आपकी और रखा गया एक एक कदम अश्वमेघ यज्ञ के समान फलदायक होता है। जिन महापापियों को कहीं से भी मुक्ति नहीं मिली ऐसे महापापी भी आपके नाम के सहारे अमरता को पा गए। सैंकड़ों योजन दूरी से भी जो आपका ध्यान लगाता है उसकी भगवान विष्णु के लोक में जगह निश्चित है अर्थात उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है, उसे मोक्ष मिलता है।

नाम भजत अगणित अघ नाशै।
विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशे॥२८॥

जिमी धन मूल धर्मं अरु दाना।
धर्मं मूल गँगाजल पाना॥

तब गुन गुणन करत दुःख भाजत।
गृह गृह सम्पति सुमति विराजत॥३०॥

गंगहि नेम सहित नित ध्यावत।
दुर्जनहूँ सज्जन पद पावत॥

बुद्धिहीन विद्या बल पावै।
रोगी रोग मुक्तझ हो जावै॥३२॥

गंगा गंगा जो नर कहहीं।
भूखा नंगा कबँहु न रहहि॥

निकसत ही मुख गंगा माई।
श्रवण दाबी यम चलहिं पराई॥३४॥

हे गंगा मैया आपमें इतनी शक्ति है कि आपके नाम का भजन करने से, अनगिनत पापों का नाश हो जाता है। अज्ञानता का अंधेरा दूर होकर पवित्र ज्ञान व बल बुद्धि से मन प्रकाशित हो जाता है। जिसके लिए धर्म और दान ही धन संपत्ति हैं अर्थात जो धर्म व दान में आस्था रखते हैं, उनके लिए गंगाजल का पान भी धर्म के समान है। आपके पवित्र जल को ग्रहण करके जब आपका गुणगान किया जाता है तो सारे दुख दूर भागने लगते हैं, और घर-घर में संपत्ति व अच्छी बुद्धि विराजमान होती हैं। गंगा को नियम सहित जो ध्याता है अर्थात ध्यान लगाता है तो बूरे से बूरे आदमी को भी अच्छा पद मिलता है। बुद्धिहीन विद्या बल को पा लेते हैं, रोगी रोग से मुक्त हो जाते हैं, गंगा के नाम को जो लोग जपते रहते हैं वे कभी भी भूखे या वस्त्रहीन नहीं रहते। यदि अंतिम समय में भी यदि किसी के मुख से गंगा माई निकलता है तो यमराज भी अपने कान दबोच कर वहां से परे चला जाते है।

महं अघिन अधमन कहं तारे।
भए नरका के बंद किवारें॥

जो नर जपी गंग शत नामा।
सकल सिद्धि पूरण ह्वै कामा॥३६॥

सब सुख भोग परम पद पावहीं।
आवागमन रहित ह्वै जावहीं॥

धनि मइया सुरसरि सुख दैनि।
धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी॥३८॥

जिन अधम पापियों के लिए नरक तक के दरवाजे बंद थे ऐसे-ऐसे पापी भी आपके सहारे भवसागर से पार हो गए अर्थात मोक्ष पा गए। जिसने भी गंगा के सौ नामों को जपा, उसके सारे काम सारी सिद्धियां पूरी हुई हैं। उन्होंनें सारे सुख भोग कर परम पद को पाया व जीवन मृत्यु के चक्कर से उसका पिछा छूट जाता है वह आवागमन रहित हो जाता है। सुख दात्री गंगा मैया आप अन्य हैं हे तीरथ राज त्रिवेणी आप धन्य हैं।

ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा।
सुन्दरदास गंगा कर दासा॥

जो यह पढ़े गंगा चालीसा।
मिली भक्ति अविरल वागीसा॥४०॥

दुर्वासा ऋषि के ककरा ग्राम का निवासी सुंदर दास भी गंगा मैया आपका दास है। जो भी इस गंगा चालीसा का पाठ करता है उसे आपकी भक्ति प्राप्त होती है व निरंतर आपका आशीर्वचन मिलता रहता है।

॥ दोहा ॥

नित नए सुख सम्पति लहैं, धरें गंगा का ध्यान।
अंत समाई सुर पुर बसल, सदर बैठी विमान॥

सम्वत भुज नभ दिशि, राम जन्‍म दिन चैत्र।
पुरण चालीसा किया, हरि भक्तन हित नैत्र॥

जो गंगा मैया का ध्यान धरते हैं उन्हें हर रोज नई खुशियां व संपत्ती प्राप्त होती है। वह अंतिम समय में आदरपूर्वक विमान में बैठकर देवलोक में निवास करता है। यह चालीसा को भक्तों के कल्याण के लिए संवत भुज नभ दिशि (इसका अर्थ यानि वर्ष सपष्ट नहीं है, लेकिन एक जगह पर विक्रमी संवत 2010 माना गया है) में चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की नवमी को संपन्न हुआ इस दिन भगवान श्री राम का जन्मदिन मनाया जाता है इसलिए इसे राम नवमी भी कहा जाता है। अत: संवत का वर्ष जो भी रहा हो लेकिन माह चैत्र और तिथि शुक्ल पक्ष की नवमी को इस चालीसा के लिखने का कार्य पूरा हुआ यह निश्चित है।

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