श्री परमेश्वर स्तोत्रम् अर्थ सहित - जगदीश सुधीश भवेश विभो (Parmeshwar Stotram Jagdish Sudhish Bhavesh Vibho)

श्री परमेश्वर स्तोत्रम् एक अत्यंत शक्तिशाली संस्कृत स्तोत्र है जिसमें कुल आठ श्लोक हैं, और यह भगवान नारायण को समर्पित है। यह स्तोत्र केवल विष्णु या शिव की आराधना तक सीमित नहीं है, बल्कि उस परम सत्ता की स्तुति करता है जो निराकार है और सभी के अंदर व्याप्त है। स्तोत्ररत्नावली से लिया गया यह स्तोत्र अत्यंत मधुर और भावपूर्ण है। विशेष रूप से गुरुवार को इसका पाठ करने से पूर्व जन्म व वर्तमान के पापों से मुक्ति, दुख-दरिद्रता और शत्रुबाधा जैसी समस्याओं का नाश होता है।
परमेश्वर स्तोत्रम्
जगदीश सुधीश भवेश विभो परमेश परात्पर पूत पितः।
प्रणतं पतितं हतबुद्धिबलं
जनतारण तारय तापितकम्॥१॥
गुणहीनसुदीनमलीनमतिं त्वयि पातरि दातरि चापरतिम्।
तमसा रजसावृतवृत्तिमिमं
जनतारण तारय तापितकम्॥२॥
मम जीवनमीनमिमं पतितं मरुघोरभुवीह सुवीहमहो।
करुणाब्धिचलोर्मिजलानयनं जनतारण
तारय तापितकम्॥३॥
भववारण कारण कर्मततौ भवसिन्धुजले शिव मग्नमतः।
करुणाञ्च समर्य्य तरिं
त्वरितं जनतारण तारय तापितकम्॥४॥
अतिनाश्य जनुर्मम पुण्यरुचे दुरितौघभरै: परिपूर्णभुव:।
सुजघन्यमगण्यमपुण्यरुचिं
जनतारण तारय तापितकम्॥५॥
भवकारक नारकहारक हे भवतारक पातकदारक हे।
हर शङ्कर किङ्करकर्मचयं जनतारण तारय
तापितकम्॥६॥
तृषितश्चिरमस्मि सुधां हित मे-ऽच्युत चिन्मय देहि वदान्यवर।
अतिमोहवशेन विनष्टकृतं जनतारण तारय तापितकम्॥७॥
प्रणमामि नमामि नमामि भवं भवजन्मकृतिप्रणिषूदनकम्।
गुणहीनमनन्तमितं शरणं
जनतारण तारय तापितकम्॥८॥
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हिन्दी अर्थ
श्री परमेश्वर स्तोत्र हिन्दी अर्थ सहित
जगदीश सुधीश भवेश विभो परमेश परात्पर पूत पितः।
प्रणतं पतितं हतबुद्धिबलं
जनतारण तारय तापितकम्॥१॥
हे जगदीश ! हे सुमतियों के स्वामी ! हे विश्वेश ! हे सर्वव्यापिन् ! हे परमेश्वर ! हे प्रकृति आदि से अतीत ! हे परमपावन ! हे पितः ! हे जीवों का निस्तार करने वाले ! इस शरणागत, पतित और बुद्धि-बल से हीन संसारसन्तप्त दास का उद्धार कीजिये।
गुणहीनसुदीनमलीनमतिं त्वयि पातरि दातरि चापरतिम्।
तमसा रजसावृतवृत्तिमिमं
जनतारण तारय तापितकम्॥२॥
जो सर्वथा गुणहीन, अत्यन्त दीन और मलिनमति है तथा अपने रक्षक और दाता आप से पराङ्मुख है, हे जीवों का निस्तार करने वाले ! इस संसार सन्तप्त उस तामस-राजस वृत्ति वाले दास का आप उद्धार कीजिये।
मम जीवनमीनमिमं पतितं मरुघोरभुवीह सुवीहमहो।
करुणाब्धिचलोर्मिजलानयनं जनतारण
तारय तापितकम्॥३॥
हे जीवों का निस्तार करने वाले ! इस भयानक मरुभूमि में पड़कर नितान्त निश्चेष्ट हुए मेरे इस अति सन्तप्त जीवनरूप मीन का अपने करुणावारिधि की चंचल तरंगों का जल लाकर उद्धार कीजिये।
भववारण कारण कर्मततौ भवसिन्धुजले शिव मग्नमतः।
करुणाञ्च समर्य्य तरिं
त्वरितं जनतारण तारय तापितकम्॥४॥
अतः हे संसार की निवृत्ति करने वाले ! हे कर्मविस्तार के कारण स्वरुप ! हे कल्याणमय ! हे जीवों का निस्तार करने वाले ! संसार समुद्र के जल में डूबकर सन्तप्त होते हुए इस दास को अपनी करुणारूप नौका समर्पण करके यहाँ से तुरंत उद्धार कीजिये।
अतिनाश्य जनुर्मम पुण्यरुचे दुरितौघभरै: परिपूर्णभुव:।
सुजघन्यमगण्यमपुण्यरुचिं
जनतारण तारय तापितकम्॥५॥
हे पुण्यरुचे ! हे जीवोद्धारक ! जिसकी पापराशि के भार से पृथ्वी परिपूर्ण है, ऐसे मुझ अधम के जन्म को सदा के लिये मिटाकर मुझ अत्यन्त निन्दनीय, नगण्य, पाप में रुचि रखने वाले और संसार के दुःखों से दुःखित का उद्घार कीजिये।
भवकारक नारकहारक हे भवतारक पातकदारक हे।
हर शङ्कर किङ्करकर्मचयं जनतारण तारय
तापितकम्॥६॥
हे जगत् कर्ता ! हे नारकीय यन्त्रणाओं का अपहरण करने वाले ! हे संसार का उद्धार करने वाले ! हे पापराशि को विदीर्ण करने वाले ! हे शंकर! इस दास की कर्मराशि का हरण कीजिये और हे जीवों का निस्तार करने वाले ! इस संसार सन्तप्त जन का उद्धार कीजिये।
तृषितश्चिरमस्मि सुधां हित मे-ऽच्युत चिन्मय देहि वदान्यवर।
अतिमोहवशेन विनष्टकृतं जनतारण तारय तापितकम्॥७॥
हे अच्युत ! हे चिन्मय ! हे उदारचूडामणि ! हे कल्याणस्वरूप ! मैं अत्यन्त तृषित हूँ, मुझे ज्ञानरूप अमृत का पान कराइये। मैं अत्यन्त मोह के वशीभूत होकर नष्ट हो रहा हूँ। हे जीवों का उद्धार करने वाले ! मुझ संसार सन्तप्त को पार लगाइये।
प्रणमामि नमामि नमामि भवं भवजन्मकृतिप्रणिषूदनकम्।
गुणहीनमनन्तमितं शरणं
जनतारण तारय तापितकम्॥८॥
संसार में जन्मप्राप्ति के कारणभूत कर्मों का नाश करने वाले आपको मैं बारंबार
प्रणाम और नमस्कार करता हूँ।
हे जीवों का उद्धार करने वाले ! आप निर्गुण और
अनन्त की शरण को प्राप्त हुए इस संसार सन्तप्त जन का उद्धार कीजिये।