श्री हरि स्तोत्रम् अर्थ सहित - जगज्जालपालं चलत्कण्ठमालं (Shri Hari Stotram Jagajjalapalam Chalatkanthamalam)

श्री हरि स्तोत्रम् - भगवान विष्णु को समर्पित यह दिव्य स्तोत्र श्री आचार्य ब्रह्मानंद द्वारा रचित है, जिसे विष्णु भक्तों के लिए अत्यंत प्रभावशाली और कल्याणकारी माना गया है। कहा जाता है कि इसके श्रद्धापूर्वक पाठ से न केवल भगवान श्री हरि का, बल्कि मां लक्ष्मी का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है।
श्री हरि स्तोत्रम्
जगज्जालपालं चलत्कण्ठमालं
शरच्चन्द्रभालं महादैत्यकालं
नभोनीलकायं
दुरावारमायं
सुपद्मासहायम् भजेऽहं भजेऽहं॥१॥
सदाम्भोधिवासं गलत्पुष्पहासं
जगत्सन्निवासं शतादित्यभासं
गदाचक्रशस्त्रं
लसत्पीतवस्त्रं
हसच्चारुवक्त्रं भजेऽहं भजेऽहं॥२॥
रमाकण्ठहारं श्रुतिव्रातसारं
जलान्तर्विहारं धराभारहारं
चिदानन्दरूपं
मनोज्ञस्वरूपं
ध्रुतानेकरूपं भजेऽहं भजेऽहं॥३॥
जराजन्महीनं परानन्दपीनं
समाधानलीनं सदैवानवीनं
जगज्जन्महेतुं
सुरानीककेतुं
त्रिलोकैकसेतुं भजेऽहं भजेऽहं॥४॥
कृताम्नायगानं खगाधीशयानं
विमुक्तेर्निदानं हरारातिमानं
स्वभक्तानुकूलं
जगद्व्रुक्षमूलं
निरस्तार्तशूलं भजेऽहं भजेऽहं॥५॥
समस्तामरेशं द्विरेफाभकेशं
जगद्विम्बलेशं ह्रुदाकाशदेशं
सदा दिव्यदेहं
विमुक्ताखिलेहं
सुवैकुण्ठगेहं भजेऽहं भजेऽहं॥६॥
सुरालिबलिष्ठं त्रिलोकीवरिष्ठं
गुरूणां गरिष्ठं स्वरूपैकनिष्ठं
सदा
युद्धधीरं महावीरवीरं
महाम्भोधितीरं भजेऽहं भजेऽहं॥७॥
रमावामभागं तलानग्रनागं
कृताधीनयागं गतारागरागं
मुनीन्द्रैः सुगीतं
सुरैः संपरीतं
गुणौधैरतीतं भजेऽहं भजेऽहं॥८॥
॥ फलश्रुति॥
इदं यस्तु नित्यं समाधाय चित्तं
पठेदष्टकं कण्ठहारम् मुरारे:
स
विष्णोर्विशोकं ध्रुवं याति लोकं
जराजन्मशोकं पुनर्विन्दते नो॥
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हिन्दी अर्थ
श्री हरि स्तोत्रम् हिन्दी अर्थ सहित
जगज्जालपालं चलत्कण्ठमालं
शरच्चन्द्रभालं महादैत्यकालं
नभोनीलकायं
दुरावारमायं
सुपद्मासहायम् भजेऽहं भजेऽहं॥१॥
जो समस्त जगत के रक्षक हैं, जो गले में चमकता हार पहने हुए है, जिनका मस्तक शरद ऋतु में चमकते चन्द्रमा की तरह है और जो महादैत्यों के काल हैं। आकाश के समान जिनका रंग नीला है, जो अजय मायावी शक्तियों के स्वामी हैं, देवी लक्ष्मी जिनकी साथी हैं उन भगवान विष्णु को मैं बारंबार भजता हूँ।
सदाम्भोधिवासं गलत्पुष्पहासं
जगत्सन्निवासं शतादित्यभासं
गदाचक्रशस्त्रं
लसत्पीतवस्त्रं
हसच्चारुवक्त्रं भजेऽहं भजेऽहं॥२॥
जो सदा समुद्र में वास करते हैं,जिनकी मुस्कान खिले हुए पुष्प की भांति है, जिनका वास पूरे जगत में है,जो सौ सूर्यों के समान प्रतीत होते हैं। जो गदा,चक्र और शस्त्र अपने हाथों में धारण करते हैं, जो पीले वस्त्रों में सुशोभित हैं और जिनके सुंदर चेहरे पर प्यारी मुस्कान हैं, उन भगवान विष्णु को मैं बारंबार भजता हूँ।
रमाकण्ठहारं श्रुतिव्रातसारं
जलान्तर्विहारं धराभारहारं
चिदानन्दरूपं
मनोज्ञस्वरूपं
ध्रुतानेकरूपं भजेऽहं भजेऽहं॥३॥
जिनके गले के हार में देवी लक्ष्मी का चिन्ह बना हुआ है, जो वेद वाणी के सार हैं, जो जल में विहार करते हैं और पृथ्वी के भार को धारण करते हैं। जिनका सदा आनंदमय रूप रहता है और मन को आकर्षित करता है, जिन्होंने अनेकों रूप धारण किये हैं, उन भगवान विष्णु को मैं बारम्बार भजता हूँ।
जराजन्महीनं परानन्दपीनं
समाधानलीनं सदैवानवीनं
जगज्जन्महेतुं
सुरानीककेतुं
त्रिलोकैकसेतुं भजेऽहं भजेऽहं॥४॥
जो जन्म और मृत्यु से मुक्त हैं, जो परमानन्द से भरे हुए हैं, जिनका मन हमेशा स्थिर और शांत रहता है, जो हमेशा नूतन प्रतीत होते हैं। जो इस जगत के जन्म के कारक हैं। जो देवताओं की सेना के रक्षक हैं और जो तीनों लोकों के बीच सेतु हैं। उन भगवान विष्णु को मैं बारंबार भजता हूँ।
कृताम्नायगानं खगाधीशयानं
विमुक्तेर्निदानं हरारातिमानं
स्वभक्तानुकूलं
जगद्व्रुक्षमूलं
निरस्तार्तशूलं भजेऽहं भजेऽहं॥५॥
जो वेदों के गायक हैं। पक्षीराज गरुड़ की जो सवारी करते हैं। जो मुक्तिदाता हैं और शत्रुओं का जो मान हारते हैं। जो भक्तों के प्रिय हैं, जो जगत रूपी वृक्ष की जड़ हैं और जो सभी दुखों को निरस्त कर देते हैं। मैं उन भगवान विष्णु को बारम्बार भजता हूँ।
समस्तामरेशं द्विरेफाभकेशं
जगद्विम्बलेशं ह्रुदाकाशदेशं
सदा
दिव्यदेहं विमुक्ताखिलेहं
सुवैकुण्ठगेहं भजेऽहं भजेऽहं॥६॥
जो सभी देवताओं के स्वामी हैं, काली मधुमक्खी के समान जिनके केश का रंग है, पृथ्वी जिनके शरीर का हिस्सा है और जिनका शरीर आकाश के समान स्पष्ट है। जिनका शरीर सदा दिव्य है, जो संसार के बंधनों से मुक्त हैं, बैकुंठ जिनका निवास है, मैं उन भगवान विष्णु को बारम्बार भजता हूँ।
सुरालिबलिष्ठं त्रिलोकीवरिष्ठं
गुरूणां गरिष्ठं स्वरूपैकनिष्ठं
सदा
युद्धधीरं महावीरवीरं
महाम्भोधितीरं भजेऽहं भजेऽहं॥७॥
जो देवताओं में सबसे बलशाली हैं, त्रिलोकों में सबसे श्रेष्ठ हैं, जिनका एक ही स्वरूप है, जो युद्ध में सदा विजय हैं, जो वीरों में वीर हैं, जो सागर के किनारे पर वास करते हैं, उन भगवान विष्णु को मैं बारंबार भजता हूँ।
रमावामभागं तलानग्रनागं
कृताधीनयागं गतारागरागं
मुनीन्द्रैः सुगीतं
सुरैः संपरीतं
गुणौधैरतीतं भजेऽहं भजेऽहं॥८॥
जिनके बाईं ओर लक्ष्मी विराजित होती हैं। जो शेषनाग पर विराजित हैं। जो राग-रंग से मुक्त हैं। ऋषि-मुनि जिनके गीत गाते हैं। देवता जिनकी सेवा करते हैं और जो गुणों से परे हैं। मैं उन भगवान विष्णु को बारम्बार भजता हूँ।
॥ फलश्रुति॥
इदं यस्तु नित्यं समाधाय चित्तं
पठेदष्टकं कण्ठहारम्
मुरारे:
स विष्णोर्विशोकं ध्रुवं याति लोकं
जराजन्मशोकं पुनर्विन्दते
नो॥
भगवान हरि का यह अष्टक जो कि मुरारी के कंठ की माला के समान है,जो भी इसे सच्चे मन से पढ़ता है वह वैकुण्ठ लोक को प्राप्त होता है। वह दुख, शोक, जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है।