वट सावित्री व्रत कथा (Vat Savitri Vrat Katha)
Vat Savitri Vrat Katha in Hindi: वट सावित्री व्रत, जिसे स्कंद पुराण में विशिष्ट स्थान दिया गया है, सुहागन स्त्रियों द्वारा ज्येष्ठ अमावस्या के दिन पति की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए रखा जाता है। इस दिन महिलाएं व्रत रखकर वट (बरगद) वृक्ष के नीचे देवी सावित्री की पूजा करती हैं और व्रत कथा का पाठ व श्रवण करती हैं। ऐसा माना जाता है कि सावित्री ने इसी दिन अपने मृत पति सत्यवान के प्राण यमराज से वापिस ले लिए थे।
उत्तर भारत में यह व्रत त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों तक और दक्षिण भारत में वट पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। यह व्रत न केवल दांपत्य जीवन को सुखमय बनाता है, बल्कि माता सावित्री की कृपा से घर में उन्नति और सौभाग्य भी बना रहता है।

वट सावित्री व्रत कथा
वट सावित्री व्रत की कथा का वर्णन स्कंद पुराण में मिलता है। इसमें देवी सावित्री द्वारा अपने मृत पति सत्यवान के प्राण वापस लाने की विलक्षण कथा कही गई है। यह कथा विवाहित स्त्रियों को सौभाग्य प्रदान करने वाली मानी जाती है, अतः इस दिन सुहागिन स्त्रियाँ वटवृक्ष के नीचे बैठकर व्रत करती हैं और इस पवित्र कथा का श्रवण करती हैं।
एक बार देवी पार्वती ने भगवान शिव से पूछा - “हे प्रभु! प्रभास क्षेत्र में स्थित ब्रह्माजी की प्रिया देवी सावित्री का चरित्र मुझे बताइये, जो पतिव्रता स्त्रियों के लिए प्रेरणादायक, सौभाग्यदायक और महान पुण्यदायक हो।”
इस पर भगवान शिव बोले - “हे महादेवी! मैं तुम्हें सावित्री देवी का पावन चरित्र सुनाता हूँ, जिन्होंने ‘सावित्री-स्थल’ नामक स्थान पर वट सावित्री व्रत का अनुष्ठान किया।”
राजा अश्वपति और देवी सावित्री का अवतार
मद्र देश में अश्वपति नामक एक धर्मात्मा राजा राज्य करता था। वह क्षमाशील, सत्यनिष्ठ और प्रजावत्सल था, परंतु संतानहीन था। एक बार वह अपनी रानी के साथ तीर्थयात्रा पर निकला और प्रभास क्षेत्र में स्थित ‘सावित्री-स्थल’ पहुँचा। वहाँ उन्होंने श्रद्धा से व्रत किया।
उसी स्थान पर ब्रह्माजी की प्रिया देवी सावित्री कमंडलु धारण किए प्रकट हुईं और दर्शन देकर अदृश्य हो गईं। कुछ समय बाद राजा के यहाँ सावित्री नामक एक कन्या का जन्म हुआ, जो स्वयं देवी सावित्री का अंश थी।
वह कन्या लक्ष्मी के समान सुंदर और तेजस्वी थी। जब वह युवावस्था को प्राप्त हुई, तो राजा ने उसका विवाह योग्य वर खोजने का निर्णय लिया। किंतु कोई उपयुक्त वर न मिलने पर, उन्होंने स्वयं अपनी पुत्री को उपयुक्त वर की खोज में भेजा।
सावित्री और सत्यवान का मिलन
राजकन्या सावित्री अनेक तीर्थों और आश्रमों का भ्रमण करती हुई वापस लौटी। अपने पिता को उसने बताया कि उसने शाल्व देश के अंधे राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पति रूप में वरण कर लिया है। सत्यवान गुणवान, धर्मात्मा, सत्यवादी और सेवाभावी है।
इसी समय वहाँ उपस्थित देवर्षि नारद ने बताया कि सत्यवान गुणों में अद्वितीय तो है, परंतु उसका जीवन अब केवल एक वर्ष शेष है। यह सुनकर भी सावित्री ने निश्चयपूर्वक कहा - “वर एक ही बार चुना जाता है। अब मैं किसी और को नहीं वरण करूंगी।”
राजा ने शुभ मुहूर्त में सावित्री का विवाह सत्यवान से कर दिया। विवाह के बाद सावित्री अपने पति के साथ वन में आश्रम में रहने लगी। उसे नारदजी की भविष्यवाणी स्मरण थी, अतः वह दिन गिनने लगी।
सत्यवान की मृत्यु और यमराज का आगमन
जब सत्यवान की मृत्यु में तीन दिन शेष थे, सावित्री ने निर्जल व्रत रखा। तीसरे दिन प्रातः स्नान करके देवी-देवताओं और पितरों की पूजा की। सास-ससुर को प्रणाम कर वह सत्यवान के साथ लकड़ी लाने जंगल चली गई।
लकड़ी काटते-काटते सत्यवान को सिर में तेज़ पीड़ा होने लगी। वह सावित्री की गोद में लेट गया और वहीं उसकी मृत्यु हो गई।
तभी सावित्री ने देखा - एक सांवले रंग के, किरीटधारी, पीताम्बरधारी पुरुष प्रकट हुए। उन्होंने कहा - “मैं यमराज हूँ। सत्यवान की आयु पूर्ण हो चुकी है, इसलिए मैं स्वयं उसकी आत्मा लेने आया हूँ।”
यमराज ने सत्यवान के शरीर से अंगुष्ठमात्र आत्मा निकाल ली और यमलोक की ओर चल पड़े। सावित्री उनके पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री ने उत्तर दिया - “जहाँ मेरे पति हैं, वहीं मेरा स्थान है। पत्नी का धर्म है कि वह पति का साथ निभाए।”
सावित्री की बुद्धिमत्ता और यमराज से वरदान
सावित्री की श्रद्धा, संयम और वाणी से प्रसन्न होकर यमराज ने उसे वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा - “मेरे ससुर की दृष्टि लौट आए, मेरे पिता का राज्य पुनः प्राप्त हो, और मुझे सौ पुत्रों का सुख मिले।”
यमराज ने यह तीनों वरदान दे दिए। तब सावित्री ने चतुराई से कहा - “हे यमराज! आपने मुझे सौ पुत्रों का वर दिया है, परंतु पति के बिना मैं पुत्र कैसे प्राप्त कर सकती हूँ?”
यह सुनकर यमराज को अपनी भूल का भान हुआ और उन्होंने सत्यवान की आत्मा को मुक्त कर दिया।
सावित्री सत्यवान के साथ आश्रम लौट आई। व्रत के प्रभाव से द्युमत्सेन की नेत्रज्योति लौट आई, उन्हें पुनः राज्य प्राप्त हुआ और सावित्री को सौ पुत्रों की प्राप्ति भी हुई।