शनि प्रदोष व्रत कथा (Shani Pradosh Vrat Katha)
Shani Pradosh Vrat Katha: हिन्दू धर्म में प्रत्येक माह के त्रयोदशी तिथि को प्रदोष व्रत पड़ता है, इस व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती की विशेष पूजा-आराधना की जाती है और व्रत कथा पढ़ी जाती है। लेकिन जब यह व्रत शनिवार के दिन पड़ता है तो उसे शनि प्रदोष व्रत कहते हैं। इस व्रत में यह शनि प्रदोष व्रत कथा अवश्य पढ़ी जाती है।

शनि प्रदोष व्रत कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, एक निर्धन ब्राह्मण की पत्नी अत्यंत दरिद्रता से दुःखी होकर शांडिल्य ऋषि के आश्रम गई और विनम्रतापूर्वक बोली: “हे महामुने! मैं अत्यंत दुःखी हूं। कृपया मेरे दुःखों का निवारण बताएं। मेरे दोनों पुत्र आपकी शरण में हैं। मेरे ज्येष्ठ पुत्र का नाम धर्म है, जो कि राजपुत्र है, और लघु पुत्र का नाम शुचिव्रत है। हम अत्यंत दरिद्र हैं, केवल आप ही हमारा उद्धार कर सकते हैं।”
ऋषि शांडिल्य ने उन्हें शिव प्रदोष व्रत करने का उपदेश दिया। इसके पश्चात तीनों - माता और दोनों पुत्र प्रदोष व्रत करने लगे।
कुछ समय बाद जब पुनः प्रदोष व्रत आया, तो उन्होंने व्रत का संकल्प लिया। छोटा पुत्र शुचिव्रत स्नान हेतु एक तालाब पर गया। मार्ग में उसे एक स्वर्ण कलश प्राप्त हुआ, जो धन से परिपूर्ण था। वह प्रसन्नता से घर लौटा और अपनी माता से बोला: “मां! यह धन मुझे मार्ग में प्राप्त हुआ है।”
माता ने जब वह धन देखा, तो शिव की महिमा का गुणगान करते हुए बोली: “पुत्रों! यह धन हमें भगवान शिव की कृपा से प्राप्त हुआ है। अतः इसे प्रसाद मानकर तुम दोनों आपस में बराबर बाँट लो।”
माता के वचन सुनकर राजपुत्र धर्म बोला: “मां! यह धन मेरे छोटे भाई को भगवान शिव की कृपा से प्राप्त हुआ है। मैं इसका अधिकारी नहीं हूं। जब भगवान शंकर और माता पार्वती मुझे देंगे, तभी मैं कुछ ग्रहण करूंगा।”
ऐसा कहकर वह भगवान शंकर की पूजा में लीन हो गया।
कुछ समय पश्चात दोनों भाइयों ने प्रदेश भ्रमण की योजना बनाई। भ्रमण करते हुए उन्होंने एक वन में कई गंधर्व कन्याओं को क्रीड़ा करते देखा।
शुचिव्रत बोला: “भैया! हमें यहीं रुक जाना चाहिए।” वह वहीं रुक गया, किंतु राजपुत्र अकेले ही उन स्त्रियों के समीप चला गया।
उनमें से एक अत्यंत सुंदर कन्या, अंशुमति, राजपुत्र को देखकर मोहित हो गई। उसने अपनी सखियों से कहा:
“इस वन के समीप दूसरा वन है, जहां अनेक सुंदर पुष्प खिले हैं, तुम वहां जाकर उसकी शोभा देखो। मैं यहीं बैठी हूं, मेरे पैर में पीड़ा है।”
सखियां वहाँ से चली गईं और वह अकेली राजपुत्र की ओर निहारती रही।
राजकुमार ने पूछा: “आप कौन हैं? इस वन में कैसे आईं? क्या नाम है आपका?”
वह बोली: “मैं गंधर्वराज विद्रविक की पुत्री हूं। मेरा नाम अंशुमति है। मैंने जान लिया है कि आप मुझ पर मोहित हैं। यह संयोग विधाता का है।”
फिर उसने मोतियों का हार राजकुमार के गले में डाल दिया। राजकुमार ने हार स्वीकार करते हुए कहा: “हे भद्रे! मैंने आपका प्रेम-उपहार स्वीकार कर लिया है, किंतु मैं निर्धन हूं।”
अंशुमति बोली: “मैं जैसा कह चुकी हूं, वैसा ही करूंगी। आप अपने घर जाएं।”
राजकुमार घर लौटा और शुचिव्रत को सारी घटना विस्तार से सुनाई।
तीसरे दिन दोनों भाई पुनः उसी वन में गए। वहीं गंधर्वराज विद्रविक भी अपनी पुत्री अंशुमति के साथ आया और बोला: “मैं कैलाश गया था, जहां भगवान शंकर ने मुझसे कहा कि धर्मगुप्त नाम का एक राजपुत्र है, जो निर्धन और राज्यविहीन है, किंतु मेरा परम भक्त है। हे गंधर्वराज! उसकी सहायता करो। मैं इस कन्या को तुम्हारे पास इसलिए ला रहा हूं कि उसका विवाह धर्मगुप्त से हो।”
गंधर्वराज ने भगवान शिव की आज्ञा से कन्या का विधिपूर्वक विवाह राजपुत्र धर्मगुप्त से कर दिया।
विवाह के साथ उन्होंने उन्हें विशेष धन-सम्पत्ति भी दी। इस प्रकार भगवान शिव की कृपा से धर्मगुप्त अत्यंत प्रसन्न हुआ और बाद में अपने शत्रुओं को पराजित कर राज्य प्राप्त कर सका।
दूसरी कथा
शनि प्रदोष व्रत कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक नगर सेठ थे। सेठजी के घर में हर प्रकार की सुख-सुविधाएं थीं लेकिन संतान नहीं होने के कारण सेठ और सेठानी हमेशा दुःखी रहते थे। काफी सोच-विचार करके सेठजी ने अपना काम नौकरों को सौंप दिया और खुद सेठानी के साथ तीर्थयात्रा पर निकल पड़े।
अपने नगर से बाहर निकलने पर उन्हें एक साधु मिले, जो ध्यानमग्न बैठे थे। सेठजी ने सोचा, क्यों न साधु से आशीर्वाद लेकर आगे की यात्रा की जाए। सेठ और सेठानी साधु के निकट बैठ गए। साधु ने जब आंखें खोलीं तो उन्हें ज्ञात हुआ कि सेठ और सेठानी काफी समय से आशीर्वाद की प्रतीक्षा में बैठे हैं।
साधु ने सेठ और सेठानी से कहा कि मैं तुम्हारा दुःख जानता हूं। तुम शनि प्रदोष व्रत करो, इससे तुम्हें संतान सुख प्राप्त होगा। साधु ने सेठ-सेठानी प्रदोष व्रत की विधि भी बताई और शंकर भगवान की निम्न वंदना बताई।
शिव शंकर वन्दना
हे रुद्रदेव शिव नमस्कार।
शिवशंकर जगगुरु नमस्कार॥
हे नीलकंठ सुर नमस्कार।
शशि मौलि चन्द्र सुख नमस्कार॥
हे उमाकांत सुधि नमस्कार।
उग्रत्व रूप मन नमस्कार॥
ईशान ईश प्रभु नमस्कार।
विश्वेश्वर प्रभु शिव नमस्कार॥
दोनों साधु से आशीर्वाद लेकर तीर्थयात्रा के लिए आगे चल पड़े। तीर्थयात्रा से लौटने के बाद सेठ और सेठानी ने मिलकर शनि प्रदोष व्रत किया जिसके प्रभाव से उनके घर एक सुंदर पुत्र का जन्म हुआ और खुशियों से उनका जीवन भर गया।