श्री पशुपति अष्टकम् अर्थ सहित (Shri Pashupati Ashtakam)


श्री पशुपति अष्टकम् एक दिव्य स्तोत्र है जिसकी रचना परम श्रद्धेय श्री पृथ्वीपति सुरि जी ने की थी। यह स्तुति भगवान शिव के पशुपति स्वरूप को समर्पित है और उन्हें अत्यंत प्रिय मानी जाती है। शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि जो भक्त नित्य श्रद्धा से पशुपति अष्टकम का पाठ या श्रवण करता है, उसे भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त होती है और अंततः वह शिवपुरी धाम में निवास करता है।
श्री पशुपत्यष्टकम्
॥ ध्यानम् ॥
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं
परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं
समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं
विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं
पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्॥
॥ स्तोत्रम ॥
पशुपतीन्दुपतिं धरणीपतिं भुजगलोकपतिं च सतीपतिम्।
प्रणतभक्तजनार्तिहरं परं
भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥१॥
न जनको जननी न च सोदरो न तनयो न च भूरिबलं कुलम्।
अवति कोऽपि न कालवशं गतं
भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥२॥
मुरजडिण्डिमवाद्यविलक्षणं मधुरपञ्चमनादविशारदम्।
प्रमथभूतगणैरपि सेवितं भजत
रे मनुजा गिरिजापतिम्॥३॥
शरणदं सुखदं शरणान्वितं शिव शिवेति शिवेति नतं नृणाम्।
अभयदं करुणावरुणालयं
भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥४॥
नरशिरोरचितं मणिकुण्डलं भुजगहारमुदं वृषभध्वजम्।
चितिरजोधवलीकृतविग्रहं भजत
रे मनुजा गिरिजापतिम्॥५॥
मखविनाशकरं शशिशेखरं सततमध्वरभाजिफलप्रदम्।
प्रलयदग्धसुरासुरमानवं भजत रे
मनुजा गिरिजापतिम्॥६॥
मदमपास्य चिरं हृदि संस्थितं मरणजन्मजराभयपीडितम्।
जगदुदीक्ष्य समीपभयाकुलं
भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥७॥
हरिविरञ्चिसुराधिपपूजितं यमजनेशधनेशनमस्कृतम्।
त्रिनयनं भुवनत्रितयाधिपं भजत
रे मनुजा गिरिजापतिम्॥८॥
पशुपतेरिदमष्टकमद्भुतं विरचितं पृथिवीपतिसूरिणा।
पठति संशृणुते मनुजः सदा
शिवपुरीं वसते लभते मुदम्॥९॥
॥ इति श्रीपृथिवीपतिसूरिविरचितं श्रीपशुपत्यष्टकं सम्पूर्णम् ॥
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हिन्दी अर्थ
श्री पशुपति अष्टकम् हिन्दी अर्थ सहित
॥ ध्यानम् ॥
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं
परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं
विश्वाद्यं विश्वबीजं
निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥
रजत अर्थात चाँदी के पर्वत की भांति जिनकी कान्ति श्वेत है, जो अत्यंत रमणीक चन्द्रमा को आभूषण के रूप में धारण करते हैं, कई रत्नों और आभूषणों से जिनका शरीर उज्ज्वल है, जिनके चारो हाथों में परशु, मृग, वर और अभय है, जो आनंदित हैं तथा पद्मासन में विराजमान हैं, जिनके चारों ओर खड़े होकर देवतागण वंदना करते हैं, जो बाघ की खाल धारण करते हैं, जो इस सृष्टि के मूल हैं, जगत्-उत्पत्ति के बीज तथा समस्त भयों को हरनेवाले हैं, उन पाँच मुख और तीन नेत्र वाले महेश्वर का प्रतिदिन ध्यान करें।
॥ अथ स्तोत्रम् ॥
पशुपतीन्दुपतिं धरणीपतिं भुजगलोकपतिं च सतीपतिम्।
प्रणतभक्तजनार्तिहरं परं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥१॥
अरे मनुष्यों! जो समस्त प्राणियों, स्वर्ग, पृथ्वी और नागलोक के पति हैं, दक्षकन्या सती के स्वामी हैं, शरणागत प्राणियों और भक्त जनों की पीड़ा दूर करने वाले हैं, उन परमपुरुष पार्वती वल्लभ शंकर जी को भजो॥१॥
न जनको जननी न च सोदरो न तनयो न च भूरिबलं कुलम्।
अवति कोऽपि न कालवशं गतं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥२॥
ऐ मनुष्यों! काल के वश में पड़े हुये जीव को पिता, माता, भाई, बेटा, अत्यंत बल और कुल - इनमें से कोई भी नहीं बचा सकता, इसलिए तुम गिरिजापति को भजो॥२॥
मुरजडिण्डिमवाद्यविलक्षणं मधुरपञ्चमनादविशारदम्।
प्रमथभूतगणैरपि सेवितं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥३॥
रे मनुष्यों! जो मृदंग और डमरू बजाने में निपुण हैं, मधुर पंचम स्वर के गायन में कुशल हैं, प्रथम और भूतगण जिनकी सेवा में रहते हैं, उन गिरिजापति को भजो॥३॥
शरणदं सुखदं शरणान्वितं शिव शिवेति शिवेति नतं नृणाम्।
अभयदं करुणावरुणालयं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥४॥
हे मनुष्यों ! 'शिव !, शिव !, शिव !' कहकर मनुष्य जिनको प्रणाम करते हैं, जो शरणागतों को शरण, सुख और अभय देने वाले हैं, उन दयासागर गिरिजापति का भजन करो॥४॥
नरशिरोरचितं मणिकुण्डलं भुजगहारमुदं वृषभध्वजम्।
चितिरजोधवलीकृतविग्रहं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥५॥
अरे मनुष्यों! जो नरमुंडरूपी मणियों का कुंडल और साँपों का हार पहनते हैं, जिनका शरीर चीता की धूलि से धूसर है, उन वृषभध्वज गिरिजापति को भजो॥५॥
मखविनाशकरं शशिशेखरं सततमध्वरभाजिफलप्रदम्।
प्रलयदग्धसुरासुरमानवं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥६॥
अरे मनुष्यों! जिन्होने दक्ष यज्ञ का विध्वंश किया था, जिनके मस्तक पर चंद्रमा सुशोभित है, जो यज्ञ करने वालों को सदा ही फल देने वाले हैं और जो प्रलय की अग्नि में देवता, दानव और मानवों को दग्ध करने वाले हैं, उन गिरिजापति को भजो॥६॥
मदमपास्य चिरं हृदि संस्थितं मरणजन्मजराभयपीडितम्।
जगदुदीक्ष्य समीपभयाकुलं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥७॥
अरे मनुष्यों! जगत को जन्म, जरा और मरण के भय से पीड़ित, सामने उपस्थित भय से व्याकुल देखकर बहुत दिनों से हृदय में संचित मद का त्याग कर उन गिरिजापति को भजो॥७॥
हरिविरञ्चिसुराधिपपूजितं यमजनेशधनेशनमस्कृतम्।
त्रिनयनं भुवनत्रितयाधिपं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥८॥
अरे मनुष्यों, विष्णु, ब्रह्मा और इंद्र जिनकी पुजा करते हैं, यम और कुबेर जिनको प्रणाम करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं तथा जो त्रिभुवन के स्वामी हैं, उन गिरिजापति को भजो॥८॥
पशुपतेरिदमष्टकमद्भुतं विरचितं पृथिवीपतिसूरिणा।
पठति संशृणुते मनुजः सदा शिवपुरीं वसते लभते मुदम् ॥९॥
जो मनुष्य पृथ्वीपति सूरि के बनाए हुये इस अद्भुत पशुपति अष्टक का सदा पाठ और श्रवण करता है, वह शिवपुरी में निवास करता और आनंदित होता है॥९॥