श्रीमद् भगवदगीता माहात्म्य (Shrimad Bhagavadgita Mahatmya)
धरोवाच
भगवन्परमेशान भक्तिरव्यभिचारिणी।
प्रारब्धं भुज्यमानस्य
कथं भवति हे प्रभो॥1॥
श्री पृथ्वी देवी ने पूछाः हे भगवन! हे परमेश्वर! हे प्रभो! प्रारब्धकर्म को भोगते हुए मनुष्य को एकनिष्ठ भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है?(1)
श्रीविष्णुरुवाच
प्रारब्धं भुज्यमानो हि गीताभ्यासरतः सदा।
स मुक्तः स
सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते॥2॥
श्री विष्णु भगवान बोलेः प्रारब्ध को भोगता हुआ जो मनुष्य सदा श्री गीता के अभ्यास में आसक्त हो वही इस लोक में मुक्त और सुखी होता है तथा कर्म में लेपायमान नहीं होता।(2)
महापापादिपापानि गीताध्यानं करोति चेत्।
क्वचित्स्पर्शं न कुर्वन्ति
नलिनीदलमम्बुवत्॥3॥
जिस प्रकार कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं करता उसी प्रकार जो मनुष्य श्री गीता का ध्यान करता है उसे महापापादि पाप कभी स्पर्श नहीं करते।(3)
गीतायाः पुस्तकं यत्र पाठः प्रवर्तते।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि
तत्र वै॥4॥
जहाँ श्री गीता की पुस्तक होती है और जहाँ श्री गीता का पाठ होता है वहाँ प्रयागादि सर्व तीर्थ निवास करते हैं।(4)
सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः पन्नगाश्च ये।
गोपालबालकृष्णोsपि
नारदध्रुवपार्षदैः॥
सहायो जायते शीघ्रं यत्र गीता प्रवर्तते॥5॥
जहाँ श्रीगीता प्रवर्तमान है वहाँ सभी देवों, ऋषियों, योगियों, नागों और गोपालबाल श्रीकृष्ण भी नारद, ध्रुव आदि सभी पार्षदों सहित जल्दी ही सहायक होते हैं।(5)
यत्रगीताविचारश्च पठनं पाठनं श्रुतम्।
तत्राहं निश्चितं पृथ्वि निवसामि सदैव
हि॥6॥
जहाँ श्री गीता का विचार, पठन, पाठन तथा श्रवण होता है वहाँ हे पृथ्वी ! मैं अवश्य निवास करता हूँ। (6)
गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य
त्रींल्लोकान्पालयाम्यहंम्॥7॥
मैं श्रीगीता के आश्रय में रहता हूँ, श्रीगीता मेरा उत्तम घर है और श्रीगीता के ज्ञान का आश्रय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ।(7)
गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः।
अर्धमात्राक्षरा नित्या
स्वनिर्वाच्यपदात्मिका॥8॥
श्रीगीता अति अवर्णनीय पदोंवाली, अविनाशी, अर्धमात्रा तथा अक्षरस्वरूप, नित्य, ब्रह्मरूपिणी और परम श्रेष्ठ मेरी विद्या है इसमें सन्देह नहीं है।(8)
चिदानन्देन कृष्णेन प्रोक्ता स्वमुखतोऽर्जुनम्।
वेदत्रयी परानन्दा
तत्त्वार्थज्ञानसंयुता॥9॥
वह श्रीगीता चिदानन्द श्रीकृष्ण ने अपने मुख से अर्जुन को कही हुई तथा तीनों वेदस्वरूप, परमानन्दस्वरूप तथा तत्त्वरूप पदार्थ के ज्ञान से युक्त है।(9)
योऽष्टादशजपो नित्यं नरो निश्चलमानसः।
ज्ञानसिद्धिं स लभते ततो याति परं
पदम्॥10॥
जो मनुष्य स्थिर मन वाला होकर नित्य श्री गीता के 18 अध्यायों का जप-पाठ करता है वह ज्ञानस्थ सिद्धि को प्राप्त होता है और फिर परम पद को पाता है।(10)
पाठेऽसमर्थः संपूर्णे ततोऽर्धं पाठमाचरेत्।
तदा गोदानजं पुण्यं लभते नात्र
संशयः॥11॥
संपूर्ण पाठ करने में असमर्थ हो तो आधा पाठ करे, तो भी गाय के दान से होने वाले पुण्य को प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं।(11)
त्रिभागं पठमानस्तु गंगास्नानफलं लभेत्।
षडंशं जपमानस्तु सोमयागफलं
लभेत्॥12॥
तीसरे भाग का पाठ करे तो गंगास्नान का फल प्राप्त करता है और छठवें भाग का पाठ करे तो सोमयाग का फल पाता है।(12)
एकाध्यायं तु यो नित्यं पठते भक्तिसंयुतः।
रूद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा
वसेच्चिरम॥13॥
जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर नित्य एक अध्याय का भी पाठ करता है, वह रुद्रलोक को प्राप्त होता है और वहाँ शिवजी का गण बनकर चिरकाल तक निवास करता है।(13)
अध्याये श्लोकपादं वा नित्यं यः पठते नरः।
स याति नरतां यावन्मन्वन्तरं
वसुन्धरे॥14॥
हे पृथ्वी ! जो मनुष्य नित्य एक अध्याय एक श्लोक अथवा श्लोक के एक चरण का पाठ करता है वह मन्वंतर तक मनुष्यता को प्राप्त करता है।(14)
गीताया श्लोकदशकं सप्त पंच चतुष्टयम्।
द्वौ त्रीनेकं तदर्धं वा श्लोकानां यः
पठेन्नरः॥15॥
चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतं ध्रुवम्।
गीतापाठसमायुक्तो मृतो मानुषतां
व्रजेत्॥16॥
जो मनुष्य गीता के दस, सात, पाँच, चार, तीन, दो, एक या आधे श्लोक का पाठ करता है वह अवश्य दस हजार वर्ष तक चन्द्रलोक को प्राप्त होता है। गीता के पाठ में लगे हुए मनुष्य की अगर मृत्यु होती है तो वह (पशु आदि की अधम योनियों में न जाकर) पुनः मनुष्य जन्म पाता है।(15,16)
गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम्।
गीतेत्युच्चारसंयुक्तो
म्रियमाणो गतिं लभेत्॥17॥
(और वहाँ) गीता का पुनः अभ्यास करके उत्तम मुक्ति को पाता है। 'गीता' ऐसे उच्चार के साथ जो मरता है वह सदगति को पाता है।
गीतार्थश्रवणासक्तो महापापयुतोऽपि वा।
वैकुण्ठं समवाप्नोति विष्णुना सह
मोदते॥18॥
गीता का अर्थ तत्पर सुनने में तत्पर बना हुआ मनुष्य महापापी हो तो भी वह वैकुण्ठ को प्राप्त होता है और विष्णु के साथ आनन्द करता है।(18)
गीतार्थं ध्यायते नित्यं कृत्वा कर्माणि भूरिशः।
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो
देहांते परमं पदम्॥19॥
अनेक कर्म करके नित्य श्री गीता के अर्थ का जो विचार करता है उसे जीवन्मुक्त जानो। मृत्यु के बाद वह परम पद को पाता है।(19)
गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः।
निर्धूतकल्मषा लोके गीता याताः परं
पदम्॥20॥
गीता का आश्रय करके जनक आदि कई राजा पाप रहित होकर लोक में यशस्वी बने हैं और परम पद को प्राप्त हुए हैं।(20)
गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत्।
वृथा पाठो भवेत्तस्य श्रम एव
ह्युदाहृतः॥21॥
श्रीगीता का पाठ करके जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसका पाठ निष्फल होता है और ऐसे पाठ को श्रमरूप कहा है।(21)
एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीताभ्यासं करोति यः।
स तत्फलमवाप्नोति दुर्लभां
गतिमाप्नुयात्॥22॥
इस माहात्म्यसहित श्रीगीता का जो अभ्यास करता है वह उसका फल पाता है और दुर्लभ गति को प्राप्त होता है।(22)
सूत उवाच
माहात्म्यमेतद् गीताया मया प्रोक्तं सनातनम्।
गीतान्ते
पठेद्यस्तु यदुक्तं तत्फलं लभेत्॥23॥
सूत जी बोलेः गीता का यह सनातन माहात्म्य मैंने कहा। गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है वह उपर्युक्त फल प्राप्त करता है।(23)
इति श्रीवाराहपुराणे श्रीमद् गीतामाहात्म्यं संपूर्णम्।
इस प्रकार श्री वाराह पुराण में श्रीमद् गीता माहात्म्य संपूर्ण हुआ॥